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ख़िज़ाँ के बे-कैफ़ मंज़रों का ब-रंग-ए-ख़ुश्बू जवाब रखना | शाही शायरी
KHizan ke be-kaif manzaron ka ba-rang-e-KHushbu jawab rakhna

ग़ज़ल

ख़िज़ाँ के बे-कैफ़ मंज़रों का ब-रंग-ए-ख़ुश्बू जवाब रखना

रऊफ़ सादिक़

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ख़िज़ाँ के बे-कैफ़ मंज़रों का ब-रंग-ए-ख़ुश्बू जवाब रखना
किसी की याद का अपने दिल में कोई महकता गुलाब रखना

तुम अपने किरदार और अमल को बना के आईना-ए-तलफ़्फ़ुज़
हसीन लफ़्ज़ों की सूरतों में शनाख़्तों की किताब रखना

उदास चेहरा है शाम-ए-ग़म का धुआँ धुआँ शब उतर रही है
अभी से कोई सहर का मंज़र नज़र में अपनी जनाब रखना

भुला न दे ये ज़माना तुम को क़दीम क़ब्ल-ए-मसीह कह कर
कि ज़िंदगी की कहानियों में कोई हक़ीक़त का बाब रखना

इनाद-ओ-नफ़रत का ज़हर कोई बसारतों में कभी न घोले
हमेशा आँखों के मय-कदे में मोहब्बतों की शराब रखना

बची-खुची नेकियों को तुम भी उठा के दरिया में डाल देना
किसी भी सालेह अमल का अपने कभी न कोई हिसाब रखना

सहर की धुँदली सी रौशनी में तमाम दिन की बसीरतें हूँ
शुऊ'र बेदार करने वाले हमारी आँखों में ख़्वाब रखना