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ख़िश्त-ए-जाँ दरमियान लाने में | शाही शायरी
KHisht-e-jaan darmiyan lane mein

ग़ज़ल

ख़िश्त-ए-जाँ दरमियान लाने में

तालिब हुसैन तालिब

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ख़िश्त-ए-जाँ दरमियान लाने में
उम्र लगती है घर बनाने में

आज फिर चाँद देर से निकला
तुम ने फिर देर कर दी आने में

इतना नम-दीदा था लिबास-ए-वजूद
धूप कम पड़ गई सुखाने में

देख कर तुम को हैरती हूँ मैं
किस क़दर हुस्न है ज़माने में

फिर पियाले में आग लग गई है
कौन आया शराब-ख़ाने में

मेरी नज़रों ने इस को नज़्म किया
वो मगन थी ग़ज़ल सुनाने में

मुज़्तरिब भी हूँ मुतमइन भी हूँ
अपनी ग़ज़लों को ख़ुद जलाने में