ख़िरद को ख़ाना-ए-दिल का निगह-बाँ कर दिया हम ने
ये घर आबाद होता इस को वीराँ कर दिया हम ने
छुपोगे क्या दिगर रंग-ए-शबिस्ताँ कर दिया हम ने
कि अपने घर को फूँका और चराग़ाँ कर दिया हम ने
घुटे जाते थे तुम मीना-ए-क़ल्ब-ए-अहल-ए-ख़ल्वत में
तुम्हें जाम-ए-कफ़-ए-सहरा-नशीनाँ कर दिया हम ने
अनीस-ए-ख़्वाज्गाँ तुम थे जलीस-ए-ख़्वाज्गाँ तुम थे
मगर तुम को नसीब कम-नसीबाँ कर दिया हम ने
हरीम-ए-नाज़ से तुम को चुरा लाने के मुजरिम हैं
ये सहरा था इसे भी कू-ए-जानाँ कर दिया हम ने
नज़र वालो ज़रा चाक-ए-गरेबाँ देखते जाओ
इसे चाक-ए-नक़ाब-ए-रू-ए-जानाँ कर दिया हम ने
ज़मीं ख़ाकिस्तर-ए-यक शोला-ओ-यम आब-ए-यक-गिर्या
यही वो आब-ओ-गिल है जिस को इंसाँ कर दिया हम ने
जफ़ा से फ़ितरत-ए-आसूदगाँ तामीर की तुम ने
वफ़ा को क़िस्मत-ए-आशुफ़्ता-हालाँ कर दिया हम ने
मता-ए-हुस्न महसूसात में अर्ज़ां ही रह जाती
गिराँ उस को ब-यक तख़ईल-ए-यज़्दाँ कर दिया हम ने
खंडर में माह-ए-कामिल का सँवरना इस को कहते हैं
तुम उतरे दिल में जब दिल को बयाबाँ कर दिया हम ने
अमानत माँगती थी हम से सामान-ए-निगह-दारी
तुम्हीं को शहर-ए-ख़ामोशी का दरबाँ कर दिया हम ने
ग़ज़ल
ख़िरद को ख़ाना-ए-दिल का निगह-बाँ कर दिया हम ने
इज्तिबा रिज़वी