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खिल उठे फूल महक मुझ को हवा से आई | शाही शायरी
khil uThe phul mahak mujhko hawa se aai

ग़ज़ल

खिल उठे फूल महक मुझ को हवा से आई

ख़ालिद शिराज़ी

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खिल उठे फूल महक मुझ को हवा से आई
अब्र के रूप में बिल्क़ीस सबा से आई

कान के साथ खुली आँख की पुतली लेकिन
कोई तस्वीर उभर के न सदा से आई

रेग-ए-साहिल की तब-ओ-ताब की दुश्मन ठहरी
लहर जो भी पस-ए-दीवार-ए-हवा से आई

दाइमी कर लिया उस को कि सर-ए-अर्सा-ए-शब
दिल को जो साअत-ए-ग़म देने दिलासे आई

जो तमन्ना कभी आई न थी लब पर 'ख़ालिद'
आज ख़ूँ हो के रही दीदा-ए-वा से आई