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खिड़कियों से झाँक कर गलियों में डर देखा किए | शाही शायरी
khiDkiyon se jhank kar galiyon mein Dar dekha kiye

ग़ज़ल

खिड़कियों से झाँक कर गलियों में डर देखा किए

मोहम्मद अल्वी

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खिड़कियों से झाँक कर गलियों में डर देखा किए
घर में बैठे रात दिन दीवार-ओ-दर देखा किए

ऐसा मंज़र था कि आँखें देख कर पथरा गईं
फिर न देखा कुछ मगर नेज़ों पे सर देखा किए

रात-भर सोचा किए और सुब्ह-दम अख़बार में
अपने हाथों अपने मरने की ख़बर देखा किए

एक तारा ना-गहाँ चमका गिरा और बुझ गया
फिर न आई नींद तारे रात-भर देखा किए

वो तो ख़्वाबों में भी ख़ुश्बू की तरह आता रहा
फूल की मानिंद उस को हम मगर देखा किए

कौन था वो कब मिला था क्या पता 'अल्वी' मगर
देर तक हम उस को आँखें मूँद कर देखा किए