खिड़कियाँ खोल के कैसी ये सदाएँ आईं
याद ये किस की दिलाने को सदाएँ आईं
ज़ेहन की धुँद ने उम्रों को सवाली रक्खा
धुँद के पर्दे से कितनी ही शुआएँ आईं
तोड़ कर कौन सी ज़ंजीर ये मुजरिम आए
जुर्म था कौन सा उन का जो सज़ाएँ आईं
मैं तुझे भूल के दुनिया से लिपट जाता हूँ
ऐसा करने से न जीने की अदाएँ आईं
जब कभी ख़्वाब जज़ीरों पे बुलाया मुझ को
ख़ैर-मक़्दम को मिरे नूर फ़ज़ाएँ आईं
नाम इक दिल में धड़कता है सहीफ़ा बन कर
इस सहीफ़े की हिफ़ाज़त को हवाएँ आईं

ग़ज़ल
खिड़कियाँ खोल के कैसी ये सदाएँ आईं
अज़ीज़ प्रीहार