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खिड़की से महताब न देखो | शाही शायरी
khiDki se mahtab na dekho

ग़ज़ल

खिड़की से महताब न देखो

ज़फ़र कलीम

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खिड़की से महताब न देखो
ऐसे भी तुम ख़्वाब न देखो

डूब रहे सूरज में यारो
दिन की आब-ओ-ताब न देखो

हरजाई हैं लोग यहाँ के
इस बस्ती के ख़्वाब न देखो

अंदर से हम टूट रहे हैं
बाहर के अस्बाब न देखो

फ़न देखो बस मल्लाहों का
दरिया के सैलाब न देखो

सच्चे सपने दो आँखों को
झूटे हों वो ख़्वाब न देखो

दीवाना हूँ दीवाना मैं
तुम मेरे आदाब न देखो

ग़म में भी हम ख़ुश रहते हैं
ग़म सहने की ताब न देखो

देखो अपने ऐब 'ज़फ़र'-जी
कैसे हैं अहबाब न देखो