ख़ेमा-ए-जाँ की तनाबों को उखड़ जाना था
हम से इक रोज़ तिरा ग़म भी बिछड़ जाना था
कौन से काज सँवरते हैं तिरे होने से
कौन सा काम न होने से बिगड़ जाना था
बैअत-ए-इश्क़ न की बैअत-ए-शाही के लिए
क़स्र बसना थे सो मक़्तल को उजड़ जाना था
संग-रेज़ों की कमी कब थी सर-ए-राह-ए-विसाल
दिल-ए-कम-ज़र्फ़ का दामन ही सिकुड़ जाना था
और कब तक यूँही बे-गोर-ओ-कफ़न रखते उन्हें
सर्द ख़ानों में भी लाशों को अकड़ जाना था
क्या ख़बर थी ज़र-ए-एहसास के लुटते ही 'नजीब'
इक ख़ला सा दर-ओ-दीवार में पड़ जाना था
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ग़ज़ल
ख़ेमा-ए-जाँ की तनाबों को उखड़ा जाना था
नजीब अहमद