खेला बचपन झूमा लड़कपन लहकी जवानी चौबारों में
लाठी थामे देखा बुढ़ापा नगरी के गलियारों में
निर्त पे झूमें भाव पे लहकें मदिरा पी कर बहकें लोग
कौन सुने जो चीख़ें दबी हैं पायल की झंकारों में
भूले-बिसरे सपने खोजें ब्याकुल नैनाँ बेकल हृदय
चंद्र किरन सी मुस्काती थी दहके हुए अँगारों में
नील-गगन पर जिस का सिंघासन वो है जग का पालनहार
पागल ख़ुद को दाता समझे सपनों के संसारों में
वो चंद्र-किरन वो रूप-मति वो मेरी कविता मेरी ग़ज़ल
मेले में कुछ ऐसे बिछड़ी डूब गई अँधियारों में
छलकी छलकी आँखें छुपाए होंटों पर मुस्कान सजाए
तुम जैसा दुखियारा न देखा 'इशरत' जी दुखियारों में
ग़ज़ल
खेला बचपन झूमा लड़कपन लहकी जवानी चौबारों में
इशरत क़ादरी