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खेल सब रस्म का था रस्म निभाई न गई | शाही शायरी
khel sab rasm ka tha rasm nibhai na gai

ग़ज़ल

खेल सब रस्म का था रस्म निभाई न गई

तरकश प्रदीप

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खेल सब रस्म का था रस्म निभाई न गई
ज़िंदगी हम से तिरे तौर बिताई न गई

एक दिन आप से मिल बैठने का मौक़ा लगा
और फिर अपनी भी कोई था भी पाई न गई

एक चेहरा था जिसे हुस्न अता कर न सके
एक कूचा था जहाँ ख़ाक उड़ाई न गई