ख़ज़ाने भी मिलें इस के एवज़ तो हम न बेचेंगे
हमारा ग़म है मज़लूमों का ग़म ये ग़म न बेचेंगे
कुहिस्तानों से पत्थर काट कर लाएँगे हम लेकिन
किसी ज़ालिम के हाथों ज़ख़्म का मरहम न बेचेंगे
बला से धूल फाँकें या पुराने चीथड़े पहनें
मगर यारो मता-ए-इल्म-ओ-दानिश हम न बेचेंगे
किसी दरबार में जा कर अदब और फ़न की सूरत में
तुम्हारी अम्बरीं ज़ुल्फ़ों के पेच-ओ-ख़म न बेचेंगे
हमारा इंक़लाब आएगा जब तो काम आएगा
अभी अपनी तमन्ना का उजाला हम न बेचेंगे
गुलिस्ताँ बेच कर खाना हवस-कारों का शेवा है
चमन वालो पपीहों का तरन्नुम हम न बेचेंगे
भरी महफ़िल में 'दौराँ' आज हम फिर अहद करते हैं
जो है इंसानियत की आस वो परचम न बेचेंगे
ग़ज़ल
ख़ज़ाने भी मिलें इस के एवज़ तो हम न बेचेंगे
ओवेस अहमद दौराँ