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ख़ज़ाने भी मिलें इस के एवज़ तो हम न बेचेंगे | शाही शायरी
KHazane bhi milen is ke ewaz to hum na bechenge

ग़ज़ल

ख़ज़ाने भी मिलें इस के एवज़ तो हम न बेचेंगे

ओवेस अहमद दौराँ

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ख़ज़ाने भी मिलें इस के एवज़ तो हम न बेचेंगे
हमारा ग़म है मज़लूमों का ग़म ये ग़म न बेचेंगे

कुहिस्तानों से पत्थर काट कर लाएँगे हम लेकिन
किसी ज़ालिम के हाथों ज़ख़्म का मरहम न बेचेंगे

बला से धूल फाँकें या पुराने चीथड़े पहनें
मगर यारो मता-ए-इल्म-ओ-दानिश हम न बेचेंगे

किसी दरबार में जा कर अदब और फ़न की सूरत में
तुम्हारी अम्बरीं ज़ुल्फ़ों के पेच-ओ-ख़म न बेचेंगे

हमारा इंक़लाब आएगा जब तो काम आएगा
अभी अपनी तमन्ना का उजाला हम न बेचेंगे

गुलिस्ताँ बेच कर खाना हवस-कारों का शेवा है
चमन वालो पपीहों का तरन्नुम हम न बेचेंगे

भरी महफ़िल में 'दौराँ' आज हम फिर अहद करते हैं
जो है इंसानियत की आस वो परचम न बेचेंगे