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ख़याल-ओ-ख़्वाब में कब तक ये गुफ़्तुगू होगी | शाही शायरी
KHayal-o-KHwab mein kab tak ye guftugu hogi

ग़ज़ल

ख़याल-ओ-ख़्वाब में कब तक ये गुफ़्तुगू होगी

हसन नईम

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ख़याल-ओ-ख़्वाब में कब तक ये गुफ़्तुगू होगी
उठाओ जाम कि अब बात रू-ब-रू होगी

अभी हूँ पास तो वो अजनबी से बैठे हैं
मैं उठ गया तो बहुत मेरी जुस्तुजू होगी

मुझे बताओ तो कुछ काम आ सकूँ शायद
तुम्हारे दिल में भी इक फ़स्ल-ए-आरज़ू होगी

तुझी को ढूँढता फिरता था दर-ब-दर फिर भी
मुझे यक़ीन था रुस्वाई कू-ब-कू होगी

बदल गया भी अगर वो तो देखने में 'नईम'
वही लिबास वही शक्ल हू-ब-हू होगी