EN اردو
ख़याल-ए-ज़ेहन-शिकन से ज़बान भर आ जाए | शाही शायरी
KHayal-e-zehn-shikan se zaban bhar aa jae

ग़ज़ल

ख़याल-ए-ज़ेहन-शिकन से ज़बान भर आ जाए

मुहिब आरफ़ी

;

ख़याल-ए-ज़ेहन-शिकन से ज़बान भर आ जाए
ये हो तो हाथ मिरे कोई शेर-ए-तर आ जाए

हमारे मिटने से दुनिया हुई है ऐसी निहाँ
कि जैसे बीज से बाहर कोई शजर आ जाए

बनाई मैं ने जो बे-सूरती के पत्थर से
मैं क्या करूँ इसी मूरत पे दिल अगर आ जाए

चमन तमाम तो आहट पे उस की झूम उठा
यहाँ ये ख़ब्त वो सैल-ए-हवा नज़र आ जाए

भँवर मुसिर है कि आग़ोश-ए-तंग में दरिया
तमाम वुसअ'त-ए-नख़वत समेट कर आ जाए

कशिश भी उस की ग़ज़ब रोब-ए-हुस्न भी ऐसा
कि सामना ही न कर पाऊँ वो अगर आ जाए

रहोगे फिर भी 'मुहिब' सत्ह-ए-बहर ही से दो-चार
अगर तुम्हारे लिए तह भी सत्ह पर आ जाए