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ख़याल-ए-मर्ग बड़ी शय है ज़िंदगी के लिए | शाही शायरी
KHayal-e-marg baDi shai hai zindagi ke liye

ग़ज़ल

ख़याल-ए-मर्ग बड़ी शय है ज़िंदगी के लिए

मुख़्तार हाशमी

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ख़याल-ए-मर्ग बड़ी शय है ज़िंदगी के लिए
अँधेरा जैसे ज़रूरी है रौशनी के लिए

सुकूँ की भीक न माँगेंगे चश्म-ए-लुत्फ़ से हम
गदा बनेंगे न दो दिन की ज़िंदगी के लिए

जुनूँ ने राज़-ए-हक़ीक़त तो पा लिया लेकिन
ख़ुदा को खो दिया ज़ौक़-ए-ख़ुद-आगही के लिए

बजा कि राह-नुमा राहज़न नहीं लेकिन
मुसाफ़िर अब भी तरसते हैं रह-रवी के लिए

जो तेरी चश्म-ए-तवज्जोह पे हो गया क़ुर्बां
वो ग़म भी कितना ज़रूरी था ज़िंदगी के लिए

ये दिल ग़मों से है मा'मूर ऐ ख़याल-ए-नशात
कहाँ से आएँगी गुंजाइशें ख़ुशी के लिए

सहेंगे ग़म के लिए जब्र-ए-ज़िंदगी लेकिन
नज़र न ग़म से बचाएँगे ज़िंदगी के लिए

ख़ुलूस-ए-दिल के तजस्सुस में खोए हम 'मुख़्तार'
नज़र पड़ी भी तो दुश्मन पे दोस्ती के लिए