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ख़ौफ़-ओ-वहशत बर-सर-ए-बाज़ार रख जाता है कौन | शाही शायरी
KHauf-o-wahshat bar-sar-e-bazar rakh jata hai kaun

ग़ज़ल

ख़ौफ़-ओ-वहशत बर-सर-ए-बाज़ार रख जाता है कौन

अब्दुस्समद ’तपिश’

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ख़ौफ़-ओ-वहशत बर-सर-ए-बाज़ार रख जाता है कौन
यूँ रग-ए-एहसास पर तलवार रख जाता है कौन

क्यूँ वो मिलने से गुरेज़ाँ इस क़दर होने लगे
मेरे उन के दरमियाँ दीवार रख जाता है कौन

मिम्बर-ओ-मेहराब से आतिश-फ़िशाँ होते तो हैं
वक़्त की दहलीज़ पर दस्तार रख जाता है कौन

बस ख़ुदा ग़ाफ़िल नहीं है वर्ना इस मंजधार में
मेरी कश्ती के लिए पतवार रख जाता है कौन

ये मिरा ज़ौक़-ए-सफ़र है वर्ना ऐसी धूप में
हर क़दम पर इक शजर छितनार रख जाता है कौन

दिल बड़ी नाज़ुक सी शय है उन से इतना पूछिए
टूटे शीशों का यहाँ अम्बार रख जाता है कौन

तीरगी अपना मुक़द्दर लिख चुकी फिर भी 'तपिश'
आइने में इक ग़लत पिंदार रख जाता है कौन