ख़त्म इस तरह नज़ा-ए-हक़-ओ-बातिल हो जाए
इक तरफ़ दोनों जहाँ एक तरफ़ दिल हो जाए
दिल में वो शोरिश-ए-जज़्बात वो गर्मी न रही
अब ये शायद निगह-ए-दोस्त के क़ाबिल हो जाए
जानता हूँ कि वफ़ा जी से गुज़रना है मगर
यूँ न दे तअन कि जीना मुझे मुश्किल हो जाए
दो-जहाँ तर्क-ए-मोहब्बत में किए तेरे लिए
और बेज़ार जो तुझ से भी मिरा दिल हो जाए
क़द्र-ए-इंसाँ है अभी बज़्म-ए-अदम में 'सीमाब'
क्यूँ वो दुनिया में रहे जो किसी क़ाबिल हो जाए
ग़ज़ल
ख़त्म इस तरह नज़ा-ए-हक़-ओ-बातिल हो जाए
सीमाब अकबराबादी