ख़त्म हो जंग ख़राबे पे हुकूमत की जाए
आख़िरी मारका-ए-सब्र है उजलत की जाए
हम न ज़ंजीर के क़ाबिल हैं न जागीर के अहल
हम से इंकार किया जाए न बैअत की जाए
मम्लिकत और कोई ब'अद में अर्ज़ानी हो
पहले मेरी ही ज़मीं मुझ को इनायत की जाए
या किया जाए मुझे ख़ुश-नज़री से आज़ाद
या इसी दश्त में पैदा कोई सूरत की जाए
हम अबस देखते हैं ग़ुर्फ़ा-ए-ख़ाली की तरफ़
ये भी क्या कोई तमाशा है कि हैरत की जाए
घर भी रहिए तो चले आते हैं मिलने को ग़ज़ाल
काहे को बादिया-पैमाई की ज़हमत की जाए
अपनी तहरीर तो जो कुछ है सो आईना है
रम्ज़-ए-तहरीर मगर कैसे हिकायत की जाए
ग़ज़ल
ख़त्म हो जंग ख़राबे पे हुकूमत की जाए
इरफ़ान सिद्दीक़ी