ख़त ज़मीं पर न ऐ फ़ुसूँ-गर काट
दर्द-ए-सर काटना है तो सर काट
गर लिखूँ उस को नामा-ए-उल्फ़त
हर्फ़-ए-मतलब को दे मुक़द्दर काट
क़त्ल से मेरे गर फिरे क़ातिल
दाँत से लूँ ज़बान-ए-ख़ंजर काट
गर है बेदाद ही पसंद तुझे
गर्दन-ए-ग़ैर ऐ सितम-गर काट
ग़म-ए-बर्क़-ओ-तगर्ग को न ख़रीद
किश्त-ए-उम्मीद को सरासर काट
वक़्त-ए-दय ज़ेर-ए-ख़ार-ज़ार गुज़ार
मौसम-ए-गुल तह-ए-गुल-ए-तर काट
पा-ए-मर्दी से दस्त-बुर्द न छोड़
जेब-ए-शाह-ओ-गदा बराबर काट
क़ुव्वत-ए-हज़्म है ब-क़द्र-ए-ज़र्फ़
क्या करे मौज-ए-आब-ए-गौहर काट
सब्र-ओ-तस्लीम ही के अंदर रह
उम्र रंज-ओ-ख़ुशी से बाहर काट
तेग़-ए-बुर्रान-ए-वक़्त से हर दम
रिश्ता-ए-आरज़ू को यक-सर काट
मत बना घर चमन के अंदर काट
मत लगा दिल गुल-ओ-सनोबर काट
आशियाँ के लिए चमन का से
मुर्ग़-ए-हिर्स-ओ-हवा का हर पर काट
क़दर-ए-आराम कुछ तो कर मालूम
रोज़ दुश्वार रात दूभर काट
शर्त कुछ तेग़ बाँधना ही नहीं
ज़ीस्त को आए जो मयस्सर काट
ऐ 'क़लक़' रंज हो कि हो आराम
काट जैसे कटे सुबुक-तर काट
ग़ज़ल
ख़त ज़मीं पर न ऐ फ़ुसूँ-गर काट
ग़ुलाम मौला क़लक़