ख़त की रुख़्सार पर स्याही है
चश्म-ए-ख़्वाबीदा ख़ुश-निगाही है
इश्क़ का है ग़ुबार-ए-नाला उरूज
आसमाँ औज-ए-तख़्त-ए-शाही है
क्यूँ न हो अंदलीब गर्म-ए-फ़ुग़ाँ
बू-ए-गुल हर तरफ़ को राही है
अश्क-ए-हसरत है आज तूफ़ाँ-ख़ेज़
कश्ती-ए-चश्म की तबाही है
हूँ गिरफ़्तार आप अपना मैं
हल्का-ए-फ़ल्स दाम-ए-माही है
चश्म-ए-जानाँ का रोब अबरू है
तेग़ से सौलत-ए-सिपाही है
मर्ग मेरा है ज़ब्त-ए-गिर्या 'वक़ार'
आब आब-ए-हयात-ए-माही है
ग़ज़ल
ख़त की रुख़्सार पर स्याही है
किशन कुमार वक़ार

