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ख़त बढ़ा काकुल बढ़े ज़ुल्फ़ें बढ़ीं गेसू बढ़े | शाही शायरी
KHat baDha kakul baDhe zulfen baDhin gesu baDhe

ग़ज़ल

ख़त बढ़ा काकुल बढ़े ज़ुल्फ़ें बढ़ीं गेसू बढ़े

शेख़ इब्राहीम ज़ौक़

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ख़त बढ़ा काकुल बढ़े ज़ुल्फ़ें बढ़ीं गेसू बढ़े
हुस्न की सरकार में जितने बढ़े हिन्दू बढ़े

बा'द रंजिश के गले मिलते हुए रुकता है जी
अब मुनासिब है यही कुछ मैं बढ़ूँ कुछ तू बढ़े

बढ़ते बढ़ते बढ़ गई वहशत वगर्ना पहले तो
हाथ के नाख़ुन बढ़े सर के हमारे मू बढ़े

तुझ को दुश्मन वाँ शरारत से जो भड़काते है रोज़
चाहते हैं और शर ऐ शोख़-ए-आतिश-ख़ू बढ़े

कुछ तप-ए-ग़म को घटा क्या फ़ाएदा इस से तबीब
रोज़ नुस्ख़े में अगर ख़ुर्फ़ा घटे काहू बढ़े

पेशवाई को ग़म-ए-जानाँ की चश्म-ए-दिल से 'ज़ौक़'
जब बढ़े नाले तो उस से बेशतर आँसू बढ़े