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ख़स-ओ-ख़ाशाक भी कब के हैं भँवर से निकले | शाही शायरी
KHas-o-KHashak bhi kab ke hain bhanwar se nikle

ग़ज़ल

ख़स-ओ-ख़ाशाक भी कब के हैं भँवर से निकले

माज़िद सिद्दीक़ी

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ख़स-ओ-ख़ाशाक भी कब के हैं भँवर से निकले
इक हमीं हैं कि नहीं नर्ग़ा-ए-शर से निकले

ज़ख़्म वो खुल भी तो सकता है सिलाया है जिसे
हम भला कब हैं हद-ए-ख़ौफ़-ओ-ख़तर से निकले

ये सफ़र अपना कहीं जानिब-ए-महशर ही न हो
हम लिए किस का जनाज़ा हैं ये घर से निकले

कल जो टपके थे सर-ए-कूचा-ए-कोतह-नज़राँ
अश्क अब के भी वही दीदा-ए-तर से निकले

अक्स कुछ अपना ही आईना-ए-हालात में था
सटपटाए हुए जब दाम-ए-सफ़र से निकले

कौन कह सकता है 'माजिद' कि ब-ईं कम-निगही
हश्र क्या साअत-ए-आइंदा के दर से निकले