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खंडर ये फिर बसाने का इरादा ही नहीं था | शाही शायरी
khanDar ye phir basane ka irada hi nahin tha

ग़ज़ल

खंडर ये फिर बसाने का इरादा ही नहीं था

दानियाल तरीर

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खंडर ये फिर बसाने का इरादा ही नहीं था
बदन में लौट आने का इरादा ही नहीं था

शिकम की आग ने बैलों को हाँकना सिखाया
वगरना हल चलाने का इरादा ही नहीं था

वो अपने भेड़ियों को सैर पर लाया था बन में
ग़ज़ालों को डराने का इरादा ही नहीं था

कहा था ताएरों से पेड़ को दीमक लगी है
किसी को आज़माने का इरादा ही नहीं था

ख़बर कब थी कि आँखें ओस बरसाने लगेंगी
तुझे वर्ना जगाने का इरादा ही नहीं था

मैं तेरे साथ उड़ता फिर रहा था आसमाँ में
ख़ुदा को भूल जाने का इरादा ही नहीं था

सदी मैं ने तमन्नाओं को बाल-ओ-पर दिए थे
मगर उन को उड़ाने का इरादा ही नहीं था