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खंडर में दफ़्न हुई हैं इमारतें क्या क्या | शाही शायरी
khanDar mein dafn hui hain imaraten kya kya

ग़ज़ल

खंडर में दफ़्न हुई हैं इमारतें क्या क्या

रासिख़ इरफ़ानी

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खंडर में दफ़्न हुई हैं इमारतें क्या क्या
लिखी हैं कत्बा-ए-दिल पर इबारतें क्या किया

हिसार-ए-बर्फ़ में रहना कभी सराबों में
सफ़र के शौक़ ने सौंपी सिफ़ारतें क्या क्या

तलाश-ए-लफ़्ज़ में उम्रों की काविशों का समर
अँधेरे ग़ार में घूमीं बसारतें क्या क्या

कहीं बदन के हैं सौदे कहीं ज़मीरों के
हुई हैं शहर में अब के तिजारतें क्या क्या

सवेरे आँख खुली तो नज़र में कुछ भी न था
ख़याल-ओ-ख़्वाब में पाईं बशारतें क्या क्या

दयार-ए-ज़र से मता-ए-अना बचा लाए
नज़र नज़र में भरी थीं हिक़ारतें क्या क्या

तन-ए-शिकस्ता की ता'मीर के लिए 'रासिख़'
अमल में लाई गई हैं महारतें क्या क्या