ख़मोशी उँगलियाँ चटख़ा रही है
तिरी आवाज़ अब तक आ रही है
दिल-ए-वहशी लिए जाता है लेकिन
हवा ज़ंजीर सी पहना रही है
तिरे शहर-ए-तरब की रौनक़ों में
तबीअ'त और भी घबरा रही है
करम ऐ सरसर-ए-आलाम-ए-दौराँ
दिलों की आग बुझती जा रही है
कड़े कोसों के सन्नाटे हैं लेकिन
तिरी आवाज़ अब तक आ रही है
तनाब-ए-ख़ेमा-ए-गुल थाम 'नासिर'
कोई आँधी उफ़ुक़ से आ रही है
ग़ज़ल
ख़मोशी उँगलियाँ चटख़ा रही है
नासिर काज़मी