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ख़मोशी में छुपे लफ़्ज़ों के हुलिए याद आएँगे | शाही शायरी
KHamoshi mein chhupe lafzon ke huliye yaad aaenge

ग़ज़ल

ख़मोशी में छुपे लफ़्ज़ों के हुलिए याद आएँगे

सरदार सलीम

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ख़मोशी में छुपे लफ़्ज़ों के हुलिए याद आएँगे
तिरी आँखों के बे-आवाज़ लहजे याद आएँगे

तसव्वुर ठोकरें खाते हुए क़दमों से उलझेगा
उभरती डूबती मंज़िल के रस्ते याद आएँगे

मुझे मालूम है दम तोड़ देगी आगही मेरी
जो लम्हे भूलने के हैं वो लम्हे याद आएँगे

कभी अपने अकेले-पन के बारे में जो सोचोगे
तुम्हें टूटे हुए कुछ ख़ास रिश्ते याद आएँगे

कुछ ऐसा हो कि तस्वीरों में जल जाए तसव्वुर भी
मोहब्बत याद आएगी तो शिकवे याद आएँगे

जो तेरा जिस्म छू कर मेरी साँसों में समाते थे
हर आहट पर वही ख़ुश्बू के झोंके याद आएँगे

भले औराक़-ए-माज़ी चाट जाए वक़्त की दीमक
जो क़िस्से याद आने हैं वो क़िस्से याद आएँगे

जहाँ तुम से बिछड़ने का सबब आँखें भिगोएँगे
वहीं अपनी मोहब्बत के वसीले याद आएँगे

'सलीम' आख़िर गए वक़्तों की क़ब्रें खोदिए क्यूँ-कर
दिल-ए-मासूम को अपने खिलौने याद आएँगे