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ख़मोशी की गिरह खोले सर-ए-आवाज़ तक आए | शाही शायरी
KHamoshi ki girah khole sar-e-awaz tak aae

ग़ज़ल

ख़मोशी की गिरह खोले सर-ए-आवाज़ तक आए

मुज़फ़्फ़र अबदाली

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ख़मोशी की गिरह खोले सर-ए-आवाज़ तक आए
इशारा कोई तो समझे कोई तो राज़ तक आए

कोई अंजाम कब से मुंतज़िर है इक हाज़िर का
कोई रख़्त-ए-सफ़र बाँधे कोई आग़ाज़ तक आए

ज़मीन-ए-दिल ये जम जाने से कुछ हासिल नहीं होगा
ग़ुबार-ए-शौक़ से कह दो ज़रा परवाज़ तक आए

कोई महफ़िल बड़ी ख़ामोश है यादों से फिर कह दो
रबाब-ए-जाँ कोई छेड़े कोई दम-साज़ तक आए

किसी के नाम कर डाला था ख़्वाबों के जज़ीरे को
सफ़ीने अन-गिनत वर्ना निगाह-ए-नाज़ तक आए