ख़मोशी बोल उठ्ठे हर नज़र पैग़ाम हो जाए
ये सन्नाटा अगर हद से बढ़े कोहराम हो जाए
सितारे मिशअलें ले कर मुझे भी ढूँडने निकलें
मैं रस्ता भूल जाऊँ जंगलों में शाम हो जाए
मैं वो आदम-गज़ीदा हूँ जो तन्हाई के सहरा में
ख़ुद अपनी चाप सुन कर लर्ज़ा-बर-अंदाम हो जाए
मिसाल ऐसी है इस दौर-ए-ख़िरद के होश-मंदों की
न हो दामन में ज़र्रा और सहरा नाम हो जाए
'शकेब' अपने तआ'रुफ़ के लिए ये बात काफ़ी है
हम उस से बच के चलते हैं जो रस्ता आम हो जाए

ग़ज़ल
ख़मोशी बोल उठ्ठे हर नज़र पैग़ाम हो जाए
शकेब जलाली