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ख़मोश जादा-ए-इंकार भी है सहरा भी | शाही शायरी
KHamosh jada-e-inkar bhi hai sahra bhi

ग़ज़ल

ख़मोश जादा-ए-इंकार भी है सहरा भी

अरशद अब्दुल हमीद

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ख़मोश जादा-ए-इंकार भी है सहरा भी
अज़ा में पा-ए-जुनूँ बार भी है सहरा भी

कहीं भी जाएँ लहू को तो सिर्फ़ होना है
कि तिश्ना कूचा-ए-दिलदार भी है सहरा भी

मता-ए-ज़ीस्त ख़रीदें कि तेरी सम्त बढ़ें
हमारे सामने बाज़ार भी है सहरा भी

मुझे तो सारी हदों से गुरेज़ करना है
मिरा हरीफ़ तो घर-बार भी है सहरा भी

यहीं ये धूल यहीं ख़ुशबुएँ भी उड़ती हैं
ये दिल कि ख़ित्ता-ए-गुलज़ार भी है सहरा भी

न छोड़ता है न ज़ंजीर कर के रखता है
तिरा ख़याल कि दीवार भी है सहरा भी

ये क्या जगह है जहाँ दोनों वक़्त मिलते हैं
यहाँ दरख़्त समर-बार भी है सहरा भी

ज़रा सी चूक से पाँसा पलट भी सकता है
कि अक़्ल शहर-ए-फ़ुसूँ-कार भी है सहरा भी