ख़मोश इस लिए हम हैं कि बात घर की है
अभी ये देख रहे हैं हवा किधर की है
बुझे चराग़ तो एहसास-ए-कर्ब जाग उठा
न जाने कैसे परिंदों ने शब बसर की है
हमारे बच्चों के दिल में सुलग रहे हैं अलाव
ये आग बुझ नहीं पाएगी उम्र भर की है
नहा उठेंगे अभी लोग बे-सबब ख़ूँ में
ये जंग सिर्फ़ हमारे ही एक सर की है
न तुम कहोगे तो ख़ंजर पुकार उट्ठेगा
लहू में किस के ये फिर आस्तीन तर की है
बरहना काँटों पे बिस्तर बिछा दिया मैं ने
तू भूल जा कि मिरी आरज़ू सफ़र की है
पनाह धूप से 'अहसन' जो दे सके सब को
ज़रूरत आज यहाँ ऐसे इक शजर की है
ग़ज़ल
ख़मोश इस लिए हम हैं कि बात घर की है
नवाब अहसन