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ख़लिश हो जिस में वो अरमाँ तलाश करता हूँ | शाही शायरी
KHalish ho jis mein wo arman talash karta hun

ग़ज़ल

ख़लिश हो जिस में वो अरमाँ तलाश करता हूँ

शम्स इटावी

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ख़लिश हो जिस में वो अरमाँ तलाश करता हूँ
न निकले दिल से जो पैकाँ तलाश करता हूँ

किसी की काकुल-ए-पेचाँ तलाश करता हूँ
चमन में सुम्बुल-ओ-रैहाँ तलाश करता हूँ

न जिस में दौर-ए-ख़िज़ाँ हो न आशियाना जले
मैं कोई ऐसा गुलिस्ताँ तलाश करता हूँ

ख़िलाफ़-ए-वज़अ है हद्द-ए-जुनूँ से बढ़ जाना
तरीक़-ए-चाक-गरीबाँ तलाश करता हूँ

मैं इस तलाश के क़ुर्बां फ़साना-ए-दिल को
मैं रोज़ इक नया उनवाँ तलाश करता हूँ

न कोई शम्अ' है रौशन न रक़्स-ए-परवाना
सुकून-ए-गोर-ए-ग़रीबाँ तलाश करता हूँ

जो हादसात की आँधी में भी रहे रौशन
मैं ऐसी शम-ए-फ़रोज़ाँ तलाश करता हूँ

कभी कलीम ने देखा था तूर पर जल्वा
वही मैं जल्वा-ए-जानाँ तलाश करता हूँ

वो शह-रग से भी नज़दीक 'शम्स' रहता है
जिसे ब-कोह-ओ-बयाबाँ तलाश करता हूँ