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ख़ला के दश्त में ये तुर्फ़ा माजरा भी है | शाही शायरी
KHala ke dasht mein ye turfa majra bhi hai

ग़ज़ल

ख़ला के दश्त में ये तुर्फ़ा माजरा भी है

हसन अख्तर जलील

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ख़ला के दश्त में ये तुर्फ़ा माजरा भी है
वो आसमान जो सर पर था ज़ेर-ए-पा भी है

हवा के दोष पे इक सुरमई लकीर के साथ
मिरी तलाश में शायद मिरी सदा भी है

डरा हूँ यूँ कभी तन्हाइयों की आहट से
कि जैसे मुझ में कोई शय मिरे सिवा भी है

बहुत अज़ीज़ है मुझ को ये बर्ग-ए-नौ जिस में
ज़मीं का हुस्न भी है शोख़ी-ए-सबा भी है

मिरी जफ़ा-तलबी का ख़याल है उस को
वगर्ना प्यार का अंदाज़ दूसरा भी है

रग-ए-हयात में रक़्साँ मिरी तवानाई
मैं कैसे मान लूँ मेरे लिए फ़ना भी है