ख़ला का ख़ौफ़ पस-ए-पर्दा-ए-ग़ुबार नहीं
हिसार-ए-ख़ाक से फिर भी कोई फ़रार नहीं
उबूर कर लीं हदें हम ने ना-रसाई की
मगर तवालत-ए-इम्काँ में इख़्तिसार नहीं
यही बहुत है कि मिट्टी जड़ों से लिपटी है
वगर्ना आज दरख़्तों में बर्ग-ओ-बार नहीं
कहीं ये सैल-ए-सफ़र राएगाँ न साबित हो
कि जुस्तुजू के शब-ओ-रोज़ का शुमार नहीं
सिमट रहे हैं वो इक डूबते जज़ीरे में
अभी ये राज़ किनारों पे आश्कार नहीं
ज़मीं की ख़ुश्क रगों में रवाँ जो रहता था
कनार-ए-दश्त-ए-हवस अब वो आब-ज़ार नहीं
ग़ज़ल
ख़ला का ख़ौफ़ पस-ए-पर्दा-ए-ग़ुबार नहीं
मर्ग़ूब हसन