ख़फ़ा मत हो मुझ को ठिकाने बहुत हैं
मिरा सर रहे आस्ताने बहुत हैं
बहुत दूर है अपने नज़दीक तू भी
तुझे याद काफ़िर बहाने बहुत हैं
बहाने न कर मुझ से ऐ चश्म-ए-गिर्यां
अभी अश्क मुझ को बहाने बहुत हैं
मिरे चश्म-ओ-दिल और जिगर सब हैं हाज़िर
तू ख़ातिर-निशाँ रख निशाने बहुत हैं
कशिश दिल की ही काम करती है वर्ना
फ़ुसूँ सैंकड़ों हैं फ़साने बहुत हैं
जुनूँ नक़्द-ए-दाग़-ए-जिगर माँगता है
ये कह दो कि अब तो ख़ज़ाने बहुत हैं
बहुत कम है सच इस ज़माने में 'एहसाँ'
यहाँ झूट के कार-ख़ाने बहुत हैं
ग़ज़ल
ख़फ़ा मत हो मुझ को ठिकाने बहुत हैं
अब्दुल रहमान एहसान देहलवी