EN اردو
ख़फ़ा मत हो मुझ को ठिकाने बहुत हैं | शाही शायरी
KHafa mat ho mujhko Thikane bahut hain

ग़ज़ल

ख़फ़ा मत हो मुझ को ठिकाने बहुत हैं

अब्दुल रहमान एहसान देहलवी

;

ख़फ़ा मत हो मुझ को ठिकाने बहुत हैं
मिरा सर रहे आस्ताने बहुत हैं

बहुत दूर है अपने नज़दीक तू भी
तुझे याद काफ़िर बहाने बहुत हैं

बहाने न कर मुझ से ऐ चश्म-ए-गिर्यां
अभी अश्क मुझ को बहाने बहुत हैं

मिरे चश्म-ओ-दिल और जिगर सब हैं हाज़िर
तू ख़ातिर-निशाँ रख निशाने बहुत हैं

कशिश दिल की ही काम करती है वर्ना
फ़ुसूँ सैंकड़ों हैं फ़साने बहुत हैं

जुनूँ नक़्द-ए-दाग़-ए-जिगर माँगता है
ये कह दो कि अब तो ख़ज़ाने बहुत हैं

बहुत कम है सच इस ज़माने में 'एहसाँ'
यहाँ झूट के कार-ख़ाने बहुत हैं