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ख़दशे थे शाम-ए-हिज्र के सुब्ह-ए-ख़ुशी के साथ | शाही शायरी
KHadshe the sham-e-hijr ke subh-e-KHushi ke sath

ग़ज़ल

ख़दशे थे शाम-ए-हिज्र के सुब्ह-ए-ख़ुशी के साथ

औलाद अली रिज़वी

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ख़दशे थे शाम-ए-हिज्र के सुब्ह-ए-ख़ुशी के साथ
तारीकियाँ भी पाई गईं रौशनी के साथ

जारी है सुब्ह-ओ-शाम जफ़ाओं का सिलसिला
कितना है उन को रब्त मिरी ज़िंदगी के साथ

अब देखना है मुझ को तिरे आस्ताँ का ज़र्फ़
सर को झुका रहा हूँ बड़ी आजिज़ी के साथ

ज़ख़्म-ए-जिगर खुला तो तबस्सुम कहा गया
इंसाफ़ हो सका न चमन में कली के साथ

लम्हे तो ज़िंदगी में मिले अन-गिनत मगर
इक लम्हा भी गुज़ार न पाए ख़ुशी के साथ

वक़्त-ए-सहर है उट्ठो कमर तुम भी बाँध लो
सूरज निकल रहा है नई रौशनी के साथ

'साक़ी' हर इक के बस का नहीं कार-ए-मयकशी
आदाब-ए-मय-कशी भी हैं कुछ मय-कशी के साथ