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खड़खड़ाता एक पत्ता जब गिरा इक पेड़ से | शाही शायरी
khaDkhaData ek patta jab gira ek peD se

ग़ज़ल

खड़खड़ाता एक पत्ता जब गिरा इक पेड़ से

सय्यद फ़ज़लुल मतीन

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खड़खड़ाता एक पत्ता जब गिरा इक पेड़ से
सोते गहरी नींद पंछी फड़फड़ा कर उड़ चले

जल-बुझी यादों ने जब आँखों में इक अंगड़ाई ली
अध-जले काग़ज़ पे पीले हर्फ़ रौशन हो गए

बीन जब बजने लगी सोया मदन भी जाग उठा
ज़हर लहराने लगा ख़्वाबों में हर इक साँप के

लम्हा लम्हा टूट कर बहने लगी मुद्दत की नींद
रफ़्ता रफ़्ता इक हक़ीक़त ख़्वाब जब बनने लगे

लोग बाज़ीगर बने बाज़ार में आए मगर
खेल वो खेला कि ख़ुद ही इक तमाशा बन गए

कुछ नहीं हैं हम 'मतीन' अब याद-ए-रफ़्ता के सिवा
आज से पहले थे बे-शक आदमी हम काम के