खड़े हैं दिल में जो बर्ग-ओ-समर लगाए हुए
तुम्हारे हाथ के हैं ये शजर लगाए हुए
बहुत उदास हो तुम और मैं भी बैठा हूँ
गए दिनों की कमर से कमर लगाए हुए
अभी सिपाह-ए-सितम ख़ेमा-ज़न है चार तरफ़
अभी पड़े रहो ज़ंजीर-ए-दर लगाए हुए
कहाँ कहाँ न गए आलम-ए-ख़याल में हम
नज़र किसी के दर-ओ-बाम पर लगाए हुए
वो शब को चीर के सूरज निकाल भी लाए
हम आज तक हैं उम्मीद-ए-सहर लगाए हुए
दिलों की आग जलाओ कि एक उम्र हुई
सदा-ए-नाल-ए-दूद-ओ-शरर लगाए हुए
ग़ज़ल
खड़े हैं दिल में जो बर्ग-ओ-समर लगाए हुए
अहमद मुश्ताक़