ख़बर नहीं थी किसी को कहाँ कहाँ कोई है
हर इक तरफ़ से सदा आ रही थी याँ कोई है
यहीं कहीं पे कोई शहर बस रहा था अभी
तलाश कीजिए इस का अगर निशाँ कोई है
जवार-ए-क़रिया-ए-गिर्या से आ रही थी सदा
मुझे यहाँ से निकाले अगर यहाँ कोई है
तलाश कर रहे हैं क़ब्र से छुपाने को
तिरे जहान में हम सा भी बे-अमाँ कोई है
कोई तो है जो दिनों को घुमा रहा है 'रज़ा'
पस-ए-गुमाँ ही सही पर पस-ए-जहाँ कोई है
ग़ज़ल
ख़बर नहीं थी किसी को कहाँ कहाँ कोई है
अख़्तर रज़ा सलीमी