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खाने को तो ज़हर भी खाया जा सकता है | शाही शायरी
khane ko to zahr bhi khaya ja sakta hai

ग़ज़ल

खाने को तो ज़हर भी खाया जा सकता है

शकील जमाली

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खाने को तो ज़हर भी खाया जा सकता है
लेकिन उस को फिर समझाया जा सकता है

इस दुनिया में हम जैसे भी रह सकते हैं
इस दलदल पर पाँव जमाया जा सकता है

सब से पहले दिल के ख़ाली-पन को भरना
पैसा सारी उम्र कमाया जा सकता है

मैं ने कैसे कैसे सदमे झेल लिए हैं
इस का मतलब ज़हर पचाया जा सकता है

इतना इत्मिनान है अब भी उन आँखों में
एक बहाना और बनाया जा सकता है

झूट में शक की कम गुंजाइश हो सकती है
सच को जब चाहो झुठलाया जा सकता है