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ख़ानदान-ए-क़ैस का मैं तो सदा से पीर हूँ | शाही शायरी
KHandan-e-qais ka main to sada se pir hun

ग़ज़ल

ख़ानदान-ए-क़ैस का मैं तो सदा से पीर हूँ

शाह नसीर

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ख़ानदान-ए-क़ैस का मैं तो सदा से पीर हूँ
सिलसिला-जुम्बान-ए-शोर-ए-ख़ाना-ए-ज़ंजीर हूँ

ख़ाकसारी के अभी तो दरपय तदबीर हूँ
कुश्ता हो कर ख़ाक जब हों तब कभी इक्सीर हूँ

ज़ोफ़ ने गो कर दिया है जूँ कमाँ गोशा-नशीं
अब भी चलने को जो पूछो तो सरासर तीर हूँ

रिश्ता-ए-उल्फ़त ने बाँधे हैं पर-ए-पर्वाज़ आह
दाम-ए-हैरत में ब-रंग-ए-बुलबुल-ए-तस्वीर हूँ

तुझ से ये उक़्दा खुलेगा ऐ नसीम-ए-सुब्ह-दम
ग़ुंचे की मानिंद इस गुलशन में क्यूँ दिल-गीर हूँ

मुंतज़िर चश्म-ए-रिकाब ऐ सैद-ए-अफ़्गन है हनूज़
बोसा-ए-फ़ितराक की ख़्वाहिश है वो नख़चीर हूँ

फ़क़्र की दौलत के आगे सल्तनत क्या माल है
बिस्तरे पर अपने ऐ रूबा-मिज़ाजो शेर हूँ

सच है अपने दम से क़ाएम है ये बुनियाद-ए-जहाँ
रौनक़-अफ़ज़ा-ए-चमन आरईश-ए-तामीर हूँ

जैसी चाहे वैसी ले मुझ से क़सम क़ातिल न डर
हश्र को भी गर कभी तेरा मैं दामन-गीर हूँ

अहल-ए-जौहर ही मिरे मज़मूँ को समझे है 'नसीर'
मैं भी इक़्लीम-ए-सुख़न में साहिब-ए-शमशीर हूँ