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ख़ाना-ए-दिल कि मोअत्तर भी बहुत लगता है | शाही शायरी
KHana-e-dil ki moattar bhi bahut lagta hai

ग़ज़ल

ख़ाना-ए-दिल कि मोअत्तर भी बहुत लगता है

हसनैन आक़िब

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ख़ाना-ए-दिल कि मोअत्तर भी बहुत लगता है
तेरी यादों से मुनव्वर भी बहुत लगता है

गरचे हल्का सा धुँदलका है तसव्वुर भी तिरा
बंद आँखों को ये मंज़र भी बहुत लगता है

सोचते हैं कि जिएँगे तुझे जी भर के मगर
ज़िंदगी तुझ से हमें डर भी बहुत लगता है

पूछ हम से कि हक़ीक़त में है क्या तेरा वजूद
तेरे शानों पे ये इक सर भी बहुत लगता है

फ़र्क़ कुछ भी नहीं एहसास-ए-तशख्ख़ुस के सिवा
दरमियाँ अपने ये अंतर भी बहुत लगता है

हम क़नाअत पे गुज़र करते हैं 'आकिब' हम को
कच्ची दीवारों का इक घर भी बहुत लगता है