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ख़ामुशी ही ख़ामुशी में दास्ताँ बनता गया | शाही शायरी
KHamushi hi KHamushi mein dastan banta gaya

ग़ज़ल

ख़ामुशी ही ख़ामुशी में दास्ताँ बनता गया

जुंबिश ख़ैराबादी

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ख़ामुशी ही ख़ामुशी में दास्ताँ बनता गया
मेरा हर आँसू मिरे ग़म की ज़बाँ बनता गया

आप का ग़म जब शरीक-ए-क़ल्ब-ओ-जाँ बनता गया
अश्क का हर क़तरा बहर-ए-बे-कराँ बनता गया

ज़ुल्म टूटा ही किए क़ाएम रही शान-ए-अमल
बिजलियाँ गिरती रहीं और आशियाँ बनता गया

धीरे धीरे याद उन की दिल में घर करती रही
रफ़्ता रफ़्ता इश्क़ उन का जुज़्व-ए-जाँ बनता गया

मेरी हस्ती भी तिरे जल्वों में गुम होती गई
तेरा जल्वा भी फ़रोग़-ए-ला-मकाँ बनता गया

रंग लाया इस क़दर ज़ौक़-ए-जबीन-ए-बंदगी
हर निशान-ए-सज्दा तेरा आस्ताँ बनता गया

जब तक ऐ 'जुम्बिश' रहे वो माइल-ए-लुत्फ़-ओ-करम
हर नफ़स इक ज़िंदगी-ए-जाविदाँ बनता गया