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ख़ामुशी छेड़ रही है कोई नौहा अपना | शाही शायरी
KHamushi chheD rahi hai koi nauha apna

ग़ज़ल

ख़ामुशी छेड़ रही है कोई नौहा अपना

साक़ी फ़ारुक़ी

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ख़ामुशी छेड़ रही है कोई नौहा अपना
टूटता जाता है आवाज़ से रिश्ता अपना

ये जुदाई है कि निस्याँ का जहन्नम कोई
राख हो जाए न यादों का ज़ख़ीरा अपना

इन हवाओं में ये सिसकी की सदा कैसी है
बैन करता है कोई दर्द पुराना अपना

आग की तरह रहे आग से मंसूब रहे
जब उसे छोड़ दिया ख़ाक था शोला अपना

हम उसे भूल गए तो भी न पूछा उस ने
हम से काफ़िर से भी जिज़्या नहीं माँगा अपना

ये नया दुख कि मोहब्बत से हुए हैं सैराब
प्यास के बोझ से डूबा न सफ़ीना अपना