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ख़ामोश ज़बाँ से जब तक़रीर निकलती है | शाही शायरी
KHamosh zaban se jab taqrir nikalti hai

ग़ज़ल

ख़ामोश ज़बाँ से जब तक़रीर निकलती है

अज़हर हाश्मी

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ख़ामोश ज़बाँ से जब तक़रीर निकलती है
लगता है कि पैरों से ज़ंजीर निकलती है

टूटा हुआ बधना था शायद कि वुज़ू का हो
ऐसी भी तो पुरखों की जागीर निकलती है

जो दाग़ है सज्दे का पेशानी-ए-मोमिन पर
उस दाग़ से हो कर ही तक़दीर निकलती है

मिलती है ख़ुशी सब को जैसे ही कहीं से भी
भूली हुइ बचपन की तस्वीर निकलती है

मजरूह क़लम को जब हर लफ़्ज़ दुआ दे दें
ता उम्र क़लम से फिर तहरीर निकलती है

हो अम्न यहाँ हम में सोचा था मगर 'अज़हर'
देखा तो हर इक घर से शमशीर निकलती है