ख़ामोश कली सारे गुलिस्ताँ की ज़बाँ है
ये तर्ज़-ए-सुख़न आबरू-ए-ख़ुश-सुख़नाँ है
जो बात कि ख़ुद मेरे तकल्लुम पे गराँ है
वो तेरी समाअ'त के तो क़ाबिल ही कहाँ है
हर ज़र्रा पे है मंज़िल-ए-महबूब का धोका
पहुँचे कोई इस बज़्म तक उन का ही कहाँ है
इंसान ने असरार-ए-जहाँ फ़ाश किए हैं
सोया हुआ ख़ुर्शीद है ज़र्रा निगराँ है
'फ़ितरत' दिल-ए-कौनैन की धड़कन तो ज़रा सुन
ये हज़रत-ए-इंसाँ ही की अज़्मत का बयाँ है
ग़ज़ल
ख़ामोश कली सारे गुलिस्ताँ की ज़बाँ है
अब्दुल अज़ीज़ फ़ितरत