ख़ामोश दाब-ए-इश्क़ को बुलबुल लिए हुए
गुल मस्त है चमन में पियाला पिए हुए
इमसाल फ़स्ल-ए-गुल में वो फिर चाक हो गए
अगले बरस के थे जो गरेबाँ सिए हुए
हम भी हवा में इक गुल-ए-नौख़ेज़-ए-हुस्न के
बरसों फिरे हैं चाक गरेबाँ किए हुए
दूकानें मय-फ़रोशों की कब से पड़ी हैं बंद
रह रह गए हैं क़ुफ़्ल दिए के दिए हुए
इश्क़-ए-सनम है इस में हैं ख़ुद्दारियाँ ज़रूर
ऐ दिल ख़ुदा के वास्ते ख़ुद को लिए हुए
मुर्शिद है इश्क़ हम हैं मुरीद उस जनाब के
बरसों गुज़र गए हैं पियाला पिए हुए
वो आ के मुस्कुराए इस अंदाज़-ओ-नाज़ से
खुल खुल गए जो ज़ख़्म-ए-जिगर थे सिए हुए
रोज़-ए-अज़ल से दख़्ल वजूद ओ अदम में है
दोनों इलाक़े हैं ये हमारे लिए हुए
हैं बुत-परस्त दैर में हाजी हैं काबा में
तालिब रज़ा-ए-दोस्त के धरने दिए हुए
मैदान-ए-इम्तिहाँ में हमें भेज दीजिए
कहिए उन्हें ये काम हैं जिन के किए हुए
नामर्द अपने वादी में रक्खेगा क्या क़दम
सर हो मुहिम्म-ए-इश्क़ न बे-सर दिए हुए
किस किस तरह का भेस बदल कर पहुँचते हैं
आशिक़ हुए न आप के बहरूपिए हुए
हासिल हुआ बुतों से न आशिक़ को मुद्दआ
रौशन कभी न दैर में घी के दिए हुए
तावीज़ ओ नक़्श कुछ नहीं करते असर वहाँ
सारे ये खटखटे हैं हमारे किए हुए
इक शब हुई नसीब-ए-सुलैमाँ न जो परी
हम रोज़ सोए उस को बग़ल में लिए हुए
आँखों में फिरती हैं जो वो आँखें नशीलयाँ
दो बोतलों की मस्ती है बे-मय पिए हुए
बाँधा जो चुस्त चुस्त मज़ामीन-ए-नौ के साथ
बंदिश से मेरी तंग बहुत क़ाफ़िए हुए
आशिक़ मिज़ाज रोते हैं पढ़ पढ़ के बेशतर
अशआर 'रिंद' के न हुए मरसिए हुए
ग़ज़ल
ख़ामोश दाब-ए-इश्क़ को बुलबुल लिए हुए
रिन्द लखनवी