EN اردو
ख़ामोश भी रह जाए और इज़हार भी कर दे | शाही शायरी
KHamosh bhi rah jae aur izhaar bhi kar de

ग़ज़ल

ख़ामोश भी रह जाए और इज़हार भी कर दे

तफ़ज़ील अहमद

;

ख़ामोश भी रह जाए और इज़हार भी कर दे
तस्वीर वो हाज़िक़ है जो बीमार भी कर दे

हम से तो न होगी कभी इस तरह मोहब्बत
जो हद से गुज़रने पे गुनहगार भी कर दे

इस बार भी तावील-ए-शब-ओ-रोज़ नई है
मुमकिन है वो क़ाइल मुझे इस बार भी कर दे

अफ़्लाक-तलाशी में हूँ उस बुर्ज की ख़ातिर
जो मेरे ख़ज़ाने को फ़लक पार भी कर दे

आहंग-ए-तसव्वुर से जो लर्ज़िश है रगों में
उस को मिरे ख़ामे का सरोकार भी कर दे

वो बैत जो मसदूद में रौज़न का सबब हैं
उन को गुल-ए-आवेज़ा-ए-दीवार भी कर दे

क़िर्तास पे 'तफ़ज़ील' रवाँ जूए कली-रंग
शायद मिरे लफ़्ज़ों को मज़ेदार भी कर दे