ख़ाली हुआ गिलास नशा सर में आ गया
दरिया उतर गया तो समुंदर में आ गया
यकजाई का तिलिस्म रहा तारी टूट कर
वो सामने से हट के बराबर में आ गया
जा कर जहाँ पे रक्खा था होना किया दुरुस्त
इतना सा काम कर के मैं पल भर में आ गया
लेकिन बड़ाई का कोई एहसास कब रहा
चक्कर था दुनिया-दारी का चक्कर में आ गया
आ जा के मुनहसिर रहा निगरानी पर तमाम
अक्सर से जा रहा कभी अक्सर में आ गया
यक गोशा-ए-वजूद में रक्खा क़याम कुछ
बाहर बड़ा फ़साद था सो घर में आ गया
टूटा कहीं से और गिरा सहन में मिरे
सारा परिंदा यूँ लगा इस पर में आ गया
आवाज़ दूँगा साथ मिरे आ सको तो आओ
थोड़ा जो और हालत-ए-बेहतर में आ गया
दुनिया के ख़्वाब देखते गुज़रा तमाम रोज़
उठते ही ख़्वाब-ए-अस्ल से दफ़्तर में आ गया
जागूँगा जब सदा-ए-उलूही सुनूँगा कुछ
जानूँगा जब परिंदा सनोबर में आ गया
शायद नज़ारे की यही बे-हय्यती रही
मंज़र से जाने पर कोई मंज़र में आ गया
हिलना पड़े न ताकि किसी रंज पर मुझे
सारे का सारा मैं किसी पत्थर में आ गया
ख़ुद को क़याम करने पे तर्ग़ीब दूँगा मैं
कोई जो इस्म कल मिरे मंतर में आ गया
बे-मर्तबा भी साँस का लेना गिराँ न था
तक़्दीस का ख़याल मुक़द्दर में आ गया
बाज़ार में निगाह न दिल पर पड़ी तिरी
नायाब जिंस-ए-दहर था वाफ़र में आ गया
सय्यारगाँ तो अपनी रविश पर थे गामज़न
लेकिन 'नवेद' तू कहाँ चक्कर में आ गया
ग़ज़ल
ख़ाली हुआ गिलास नशा सर में आ गया
अफ़ज़ाल नवेद