ख़ाल-ए-रुख़्सार को दाग़-ए-मह-ए-कामिल बाँधा
चश्म-ए-मख़मूर को कौनैन का हासिल बाँधा
हम ने इस शहर-ए-सितमगर के हर इक ज़र्रे को
ज़ौक़-ए-सज्दा की क़सम सज्दा-गह-ए-दिल बाँधा
हम ने हर वादी-ए-पुर-ख़ार को ज़ीनत बख़्शी
सर पे हर ख़ार के इक तुर्रा-ए-मंज़िल बाँधा
कोई देखे तो सही हौसला-मंदी अपनी
हम ने तूफ़ान की हर इक मौज को साहिल बाँधा
जज़्बा-ए-दिल को ब-अंदाज़-ए-दिगर मैं ने 'हयात'
कभी कश्ती कभी तूफ़ाँ कभी साहिल बाँधा

ग़ज़ल
ख़ाल-ए-रुख़्सार को दाग़-ए-मह-ए-कामिल बाँधा
हयात मदरासी