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ख़ाल-ए-रुख़्सार को दाग़-ए-मह-ए-कामिल बाँधा | शाही शायरी
Khaal-e-ruKHsar ko dagh-e-mah-e-kaamil bandha

ग़ज़ल

ख़ाल-ए-रुख़्सार को दाग़-ए-मह-ए-कामिल बाँधा

हयात मदरासी

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ख़ाल-ए-रुख़्सार को दाग़-ए-मह-ए-कामिल बाँधा
चश्म-ए-मख़मूर को कौनैन का हासिल बाँधा

हम ने इस शहर-ए-सितमगर के हर इक ज़र्रे को
ज़ौक़-ए-सज्दा की क़सम सज्दा-गह-ए-दिल बाँधा

हम ने हर वादी-ए-पुर-ख़ार को ज़ीनत बख़्शी
सर पे हर ख़ार के इक तुर्रा-ए-मंज़िल बाँधा

कोई देखे तो सही हौसला-मंदी अपनी
हम ने तूफ़ान की हर इक मौज को साहिल बाँधा

जज़्बा-ए-दिल को ब-अंदाज़-ए-दिगर मैं ने 'हयात'
कभी कश्ती कभी तूफ़ाँ कभी साहिल बाँधा