ख़ाल-ए-मश्शाता बना काजल का चश्म-ए-यार पर
ज़ाग़ को बहर-ए-तसद्दुक़ रख सर-ए-बीमार पर
मुझ को रहम आता है दस्त-ए-नाज़ुक-ए-दिलदार पर
मैं ही रख दूँगा गला ऐ हमदमो तलवार पर
बे-सुवैदा हाथ दिल मत डाल ज़ुल्फ़-ए-यार पर
माश पहले पढ़ के मंतर फेंक रू-ए-यार पर
गर हिफ़ाज़त रुख़ की है मंज़ूर तो मिटवा न ख़त
बाग़बाँ रखता है काँटे बाग़ की दीवार पर
कौन कहता है कि सब्ज़ा आग पर उगता नहीं
ख़त है पैदा यार के देखो रुख़-ए-गुलनार पर
देख मिज़्गाँ पर मिरी तुग़्यानी-ए-सैल-ए-सरिश्क
नूह का तूफ़ाँ न देखा होवे जिस ने ख़ार पर
जिस को देखा ही नहीं उस के वतन में क़द्र-ए-ख़ाक
बाग़ से हो कर जुदा पहुँचे है गुल दस्तार पर
हक़ अगर पूछो तो एजाज़-ए-सर-ए-मंसूर था
वर्ना लगना था तअज्जुब फल का नख़्ल-ए-दार पर
ग़ज़ल
ख़ाल-ए-मश्शाता बना काजल का चश्म-ए-यार पर
शाह नसीर