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ख़ाक या कहकशाँ से उठता है | शाही शायरी
KHak ya kahkashan se uThta hai

ग़ज़ल

ख़ाक या कहकशाँ से उठता है

सय्यद अमीन अशरफ़

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ख़ाक या कहकशाँ से उठता है
दर्द आख़िर कहाँ से उठता है

है अजब जा-ए-अम्न क़र्या-ए-दिल
हश्र सारा जहाँ से उठता है

देख ऐ आह-ए-साकिनान-ए-ज़मीं
इक ग़ुबार आसमाँ से उठता है

पहले ये ख़ार-ओ-ख़स जलाता था
शो'ला अब गुल्सिताँ से उठता है

मसअला ख़ातिर-ए-परेशाँ का
ख़्वाहिश-ए-राएगाँ से उठता है

इक ख़ला है जो पुर नहीं होता
जब कोई दरमियाँ से उठता है

शाहकार-ए-सुख़न है मिस्रा-ए-'मीर'
कब ये तुझ ना-तवाँ से उठता है